मोहन भागवत की सफाई

रघु ठाकुर
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंचालक डाॅ. मोहन भागवत ने एक नई शोध देश के समक्ष प्रस्तुत की है। वैसे भी वे अनेकों ऐसे शोध पिछले दिनों देश के समक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं, जो नितांत गलत, अतार्किक और विवादास्पद रहे हैं। यहां तक की उनके अपने परिवार में भी उनके शोध निष्कर्ष स्वीकार्य नहीं रहे। कुछ ही समय पूर्व उन्होंने यह कहा था कि जाति ईश्वर ने नहीं पंडितों ने बनाई तो ब्राहम्ण समाज की ओर से तीखी प्रतिक्रिया हुई थी और उन्हें जब यह महसूस हुआ कि जिनकी सत्ता लाने के लिये संघ बना है वही उनके खिलाफ हो रहे हैं, तो उन्होंने पंडित की एक अलग परिभाषा देकर सफाई देने का प्रयास किया।
अभी 3 मार्च 2023 को उन्होंने नागपुर के कन्होलीबारा में आर्यभट् एस्ट्रोनामी पार्क के उद्घाटन के अवसर पर बोलते हुए कहा कि ‘‘हर भारतीय के पास देश के पारंपरिक ज्ञान भण्डार की कुछ मूलभूत जानकारी होना चाहिए। उन्होंने कहा कि आक्रमण के कारण हमारी व्यवस्था नष्ट हो गई और ज्ञान की हमारी संस्कृति विखंडित हुई। हमारे कुछ प्राचीन ग्रंथ गायब हो गये जबकि कुछ के मामलों में निहित स्वार्थी तत्वों ने प्राचीन कृतियों में गलत द्रष्टिकोण डलवा दिये इसलिये गं्रथ और परंपरा की फिर से समीक्षा होना चाहिये’’।
श्री भागवत जी का यह कथन आमूल चूल झूठ का पुलिंदा है। पहला सवाल तो उनसे यही किया जाना चाहिए कि आक्रमणकारी इस देश में कैसे और क्यों आ सके और क्या उनकी विजय के पीछे भारत की जाति व्यवस्था और कतिपय उच्च जातियों के लोगों का आपसी संघर्ष और गद्दारी नहीं है? यह प्रयास पिछले कुछ दिनों से संघ के द्वारा किया जा रहा है कि इतिहास के नाम पर प्राचीन ग्रंथों का पुर्नलेखन कराया जाये और अतीत में जो अमानवीय और क्रूरता की घटनायें जाति प्रथा के नाम पर हुई है उन्हें शास्त्रों व ग्रन्थों से हटाया जाये ताकि उनकी जमात अतीत के दोषों से दोष मुक्त हो सके। इतिहास को नष्ट करने का यह एक खतरनाक अभियान डाॅ. भागवत व उनकी जमात ने शुरू किया है। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि जो श्री मोहन भागवत कह रहे हैं, वही समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव एवं विधान परिषद के सदस्य, श्री स्वामी प्रसाद मौर्य भी कह रहे हैं। 2 फरवरी 2023 की लखनऊ में पत्रकार सम्मेलन में भी स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि जब तक इस महाकाव्य (राम चरित्र मानस की) की आपत्तिजनक टिप्पणी संशोधित या प्रतिबंधित नहीं होती तब तक इसके खिलाफ उनकी मुहिम जारी रहेगी।
वैसे तो इतिहासकारों का एक बड़ा हिस्सा आर्याें को विदेशी मानता व सिद्ध करता रहा है और उन्हें भारत में आकर अनार्याें पर अपनी परंपरायें व संस्कृति थोपने का सांस्कृतिक आक्रमणकारी मानता है। पर फिलहाल इस बहस को हम छोड़ भी दें तो दो गैर हिन्दू धर्मावलंबियों के आक्रमणकारी हमले भारत पर मुख्यतः हुये है-एक- मुगलकालीन आक्रमण-दूसरा-ब्रिटिश या अंग्रेजों का आक्रमण।
इन आक्रमणकारियों ने सेना की ताकत से भारत पर कब्जा किया था तथा कई वर्षाें तक भारत पर मुगल आक्रमणकारियों का शासन रहा है। परन्तु अभी तक इतिहास की कोई ऐसी पुस्तक नज़र नहीं आई जिसमें कहीं भी हिन्दू धर्म से सम्बन्धित पुस्तकों में संशोधन किये जाने का कोई आदेश आक्रमणकारियों या उन शासकों के द्वारा हुआ हो। आक्रमणकारियों ने मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनाई यह तो घटनायें सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक मिलती है। परन्तु पुस्तकों में परिवर्तन करने की कोई घटना का उल्लेख कहीं भी नही मिलता। और वह संभव भी नहीं था। क्योंकि प्राचीन शास्त्र और ग्रंथ लिखित में बहुत कम थे और जो थे, वह भी अधिकांशतः ब्राह्मण समाज के पास थे क्योंकि वे ज्ञान के अध्ययन और अध्यापन के वर्ण और जाति व्यवस्था के आधार पर एकाधिकारी और नियंत्रक थे। किस ब्राह्मण ने यह संशोधन कब और कैसे किये क्या इसका कोई उत्तर भागवत जी देंगे? फिर कोई एक व्यक्ति समूचे देश के शास्त्र की किताबों में संशोधन या तोड़-मोड़ कैसे कर सकता है? मुगल आक्रमणकारी तो अरबी भाषा वाले थे और वे हिन्दू ग्रन्थों में कोई संशोधन नहीं कर सकते थे।
मुगल आक्रमण काल में गुरू ग्रंथ साहिब, जैन ग्रंथ, बौद्ध ग्रंथ और अन्य धर्म के ग्रंथों में किसी बदलाव की शिकायत इन धर्माें के धर्मावलंबियों ने नहीं की। 17वीं सदी में अंग्रेजों के कब्जे के बाद भी इतिहास की घटनाओं के प्रस्तुतिकरण के नजरिये से या विश्लेषण से, मतभिन्नता हो सकती है, उनके द्वारा लिखे गये इतिहास की पुस्तकों पर भी प्रश्नचिन्ह लगाये जा सकते हैं परन्तु हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में कोई गलत द्रष्टिकोण या उल्लेख जोड़ने का काम वे भी नहीं कर सकते थे। अगर वे भी ऐसा प्रयास करते तो उन्हें जैन, बुद्ध, इस्लाम, आदि सभी धर्माें की किताबों को बदलना पड़ता। वे कुरान का एक शब्द भी नहीं बदल सके, न किसी अन्य धर्म का। पिछले दिनों वल्र्ड ट्रेड सेन्टर पर बिन लादेन के तालीबानी हमले के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान पर कई वर्ष अपना सैन्य नियंत्रण रखा, सद्दाम को मारने के बाद ईराक में अपना नियंत्रण रखा, परन्तु कुरान से कोई छेड़छाड़ नहीं की और न ही यह संभव था।
अंग्रेजों ने अपनी सत्ता को कायम और सुरक्षित रखने के लिये निसंदेह इतिहास की घटनाओं को अपने दृष्टिकोण से अपने शासन के हित में व स्थायित्व के लिये प्रस्तुत किया और इतिहास को देशी-विदेशी के संघर्ष के बजाय हिन्दू और मुसलमानों के संघर्ष की ओर मोड़ने का प्रयास किया। परन्तु इस्लामिक परंपराओं और धार्मिक ग्रंथों, हिन्दू परंपराओं व धार्मिक ग्रंथों और उसी प्रकार अन्य भारतीय धर्माें के ग्रंथों और परंपराओं में कोई परिवर्तन वह नहीं कर सकते थे।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि भारत के इतिहास में जाति प्रथा के उदय के बाद जाति भेदभाव की घटनायें हुई हैं और योग्यता व व्यवस्था को जन्मना जातियों के साथ जोड़ दिया गया। शाम्बूक वध से लेकर 18वीं सदी और आज तक भी जाति भेदभाव की हजारों घटनायें हुई है इनसे इंकार करना सत्य पर पर्दा डालना, सत्य को छिपाना और इतिहास और धर्म ग्रंथों को बदलना है। ऐसी अनेक बातें हैं जो कुरान या बाईबिल में या अन्य ग्रंथों में हो सकती हैं, जो आज के समाज की कसौटी पर खरी न हो। परन्तु उन्हें बदला नहीं जा सकता। यह धर्म या मन का ध्रुवीकरण नहीं होगा बल्कि ऐतिहासिक, सामाजिक अपराधों का छिपाना होगा।
भारतीय समाज में जातीय भेदभाव रहा है यह तो श्री मोहन भागवत के आदर्श श्री विनायक दामोदर सावरकर ने भी स्वीकार किया है। स्व. सावरकर ने हिन्दू समाज की सात बेड़ियों (जंजीरों) का उल्लेख किया था जिनमें से एक, वेदोत बंदी (गैर ब्राह्मणों के वैदिक साहित्य पढ़ने पर पाबंदी) दूसरी -व्यवसाय बंदी (जन्म के आधार पर रोजगार का निर्धारण) तीसरा – स्पर्शबंदी (अस्पृश्यता) चैथा-समुद्र बंदी (विदेश जाने वालों का जातीय बहिष्कार) पाँचवा-शुद्धिबंदी (हिन्दू धर्म में पुनः वापिसी पर रोक) छटवां – रोटी बंदी- (जाति से बाहर भोजन करने की रोक) और सातवीं-बेटी बंदी (अंतरजातीय विवाह की रोक)। इन सात बेड़ियों का जिक्र हिन्दू धर्म और समाज में होने का उल्लेख स्व. सावरकर ने 1924 में किया था। मतलब साफ है कि भारतीय समाज में और हिन्दू समाज मंें जातीयता के आधार पर बंधन और भेद हजार साल से अधिक से कायम रहे हैं। और इन्हीं भेदों को कायम रखने के लिये जाति व्यवस्था के निर्माताओं ने गैर ब्राह्मणों के वैदिक साहित्य पर पढ़ने पर रोक लगाई थी। मनु स्मृति के काल में कोई विदेशी आक्रमणकारी नहीं थे और मनु स्मृति के अनेक नियम जातीय भेदभाव पर आधारित बनाये गये थे। जो स्पष्ट तौर पर जातीवाद की, या जाति भेदभाव की पुष्टि करते हैं। क्या भागवत जी बतायेंगे कि जब मनु स्मृृति लिखी गई थी उस काल में कौन से आक्रमणकारी थे?
संघ का जातीय समर्थक अभियान दो तरफा चल रहा है। एक तरफ वे इतिहास को बदलने के नाम पर सत्य को मिटाना चाहते हैं और दूसरी तरफ मनु स्मृति को फिर प्रचलित कर स्वीकार्य बनाना चाहते हैं। इसी योजना के अंतर्गत बनारस हिन्दू वि.वि. के ‘‘धर्म शास्त्र और मीमांसा विभाग’’ की ओर से ‘‘भारतीय समाज में मनु स्मृति का महत्व’’ विषय पर शोध कराई जा रही है। मनु स्मृति के 12 अध्यायों को चार वर्गाें में बांटकर शोध के नाम पर मनु स्मृति और जातिवाद का बचाव करने का अभियान चल रहा है। यह कहा जा रहा है कि मनु स्मृति में ज्ञान व क्षमता के आधार पर ही वर्ग विभाजन किया गया है जबकि यह सच नहीं है। और इसलिये भी कि जब ज्ञान व योग्यता के लिये जातीय आधार पर अवसर हो या जातीय आधार पर अवसरवंदी हो जिसका उल्लेख स्व. सावरकर ने भी किया है तो फिर ऐसे कथन बेईमानी ही कहे जा सकते है। मनु स्मृति के ‘‘महिला विरोधी’’ खण्डों को यह बताया जा रहा है कि यह अच्छी महिला और अच्छी पत्नी होने की समस्यात्मक मार्गदर्शिका है। क्या यह महिलाओं की योग्यता व चरित्र पर संदेह व्यक्त करना नहीं है? विभाग प्रमुख शंकर मिश्रा का कहना है शोध के द्वारा मनु स्मृति के बारे में जनमानस में सही धरणा पैदा की जायेगी।
मैं पुनः कहना चाहूॅगा कि अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास की घटनाओं को अपने शासन के हित के लिये विकृत व विवादित तरीके से पेश किया। वामपंथी इतिहासकारों ने भी मुस्लिम आक्रमणकारियों के ऐतिहासिक कालखण्डों को छिपाने, बचाने या उन्हें तर्क देने का प्रयास किया। ये दोनों ही प्रयास एक सामाजिक और बौद्धिक अपराध थे। और अब वही सामाजिक और बौद्धिक अपराध केन्द्र की सत्ता के संरक्षण में संघ परिवार कर रहा है। मैं श्री मोहन भागवत जी से कहूॅगा कि इतिहास की पुस्तकों के पन्ने फाड़ने से या उन पर स्याही उलट देने से इतिहास नहीं बदलेगा। बल्कि अच्छा तो यह हो कि वे गाँधी का मार्ग चुनें और साहस के साथ अपने पुरखों की गलतियों को स्वीकार करें और उसके लिये प्रायश्चित करें। इतिहास के पन्ने फाड़ने से देश का मन नहीं बदलेगा। क्या अंग्रेजों के इतिहास की गलत प्रस्तुति करने के प्रयास से भारत का मन बदला? क्या वामपंथी इतिहासकारों द्वारा इतिहास की घटनाओं को दबाने से इतिहास या देश का मन बदला? और अब उन्हें भी यह याद रखना चाहिये कि उनके इन तरीकों से इतिहास नहीं बदलेगा और न ही देश का मन बदलेगा। बल्कि वे स्वयं भी इतिहास को विकृत करने वालों की श्रेणी में खड़े मिलेंगे।